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 भानगढ़ का चौकीदार

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राजस्थान का भानगढ़ किला एक ऐसी ही जगह है, जहाँ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का बोर्ड आज भी सूर्यास्त के बाद रुकने की सख्त मनाही करता है। यह कहानी उसी किले के एक चौकीदार, हरवीर सिंह की है—एक फौजी, जिसने ज़िंदगी भर डर का सामना किया और भूतों को एक वहम माना। यह उसकी आखिरी रात की दास्ताँ है, जब उसने अपनी अकड़ में भानगढ़ के उस नियम को तोड़ा, जिसे तोड़ने की हिम्मत कोई नहीं करता। उस रात, उसने जो देखा, वह सिर्फ एक भूत नहीं, बल्कि समय में फंसा हुआ एक पूरा शहर था… और भानगढ़ अपनी कहानी सुनाने के लिए एक नए किरदार का इंतज़ार कर रहा था।क्या हुआ था भानगढ़ में उस रात जानने के लिए पढ़ते हैं –  

भानगढ़ का चौकीदार



दुनिया में कुछ जगहें सिर्फ पत्थर और मिट्टी की नहीं होतीं; वे वक़्त की परतें होती हैं, जिनमें कहानियाँ, यादें और कभी-कभी दर्दनाक चीखें दफ़न होती हैं। राजस्थान का भानगढ़ किला एक ऐसी ही जगह है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) का बोर्ड आज भी वहाँ सूर्यास्त के बाद रुकने की सख्त मनाही करता है। लोग कहते हैं, वहाँ रानी रत्नावती का श्राप है, एक तांत्रिक की अतृप्त आत्मा है, और एक पूरा शहर है जो एक ही रात में वीरान हो गया था।

लेकिन हरवीर सिंह के लिए यह सब बकवास था।

चालीस साल फौज की नौकरी ने उसके अंदर से डर को दीमक की तरह चाट लिया था। रिटायरमेंट के बाद, जब उसे अपने गाँव के पास भानगढ़ किले की चौकीदारी का काम मिला, तो उसने इसे एक आसान काम समझा। दिन में आने वाले रंग-बिरंगे पर्यटकों की भीड़ पर नज़र रखना और शाम ढलते ही उन्हें बाहर खदेड़ देना—बस इतना ही तो था।

“यहाँ भूत नहीं, बस लोगों के दिमाग का फितूर है,” वह अपने साथी गार्डों से अकड़कर कहता। उसके लिए, भानगढ़ की कहानियाँ बस गाइडों की बनाई हुई मनगढ़ंत बातें थीं, ताकि पर्यटकों की जेब से ज़्यादा पैसे निकाले जा सकें। वह नहीं जानता था कि कुछ कहानियाँ सिर्फ सुनाई नहीं जातीं, वे दोहराई भी जाती हैं।

वह रात: जब वक़्त ने करवट ली

एक रात, मानसून की पहली तेज़ बारिश ने आसमान को चीर दिया। बिजली की कड़क और बादलों की गरज के बीच, भानगढ़ का किला एक कंक्रीट के कंकाल की तरह और भी ज़्यादा भयानक लग रहा था। हरवीर सिंह किले के मुख्य द्वार के पास अपनी छोटी सी चौकी में बैठा, चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। उसका काम खत्म हो चुका था। किले के अंदर अब परिंदा भी पर नहीं मार सकता था।

या शायद, वह गलत था।

लगभग आधी रात को, जब बारिश थोड़ी थमी, तो उसे किले के अंदर से घुंघरुओं की एक धीमी, लयबद्ध आवाज़ सुनाई दी। छम… छम… छम…। आवाज़ ‘नर्तकियों की हवेली’ के खंडहरों की तरफ से आ रही थी।

‘ज़रूर कोई जोड़ा अंदर रह गया है,’ उसने सोचा, और उसकी त्योरियां चढ़ गईं। अपनी भारी-भरकम टॉर्च और लाठी उठाकर, वह उस चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते हुए किले के अंदर चला गया, जिसे वह खुद दूसरों को दिया करता था।

किले के अंदर का माहौल बदल चुका था। हवा पूरी तरह से बंद थी, फिर भी पेड़ों के पत्ते ऐसे काँप रहे थे जैसे किसी अदृश्य हाथ की छुअन से सिहर उठे हों। उसे घुंघरुओं की आवाज़ अब और साफ़ सुनाई दे रही थी, जैसे कोई वाकई में नाच रहा हो।

वह आवाज़ का पीछा करते हुए ‘नर्तकियों की हवेली’ के टूटे हुए आँगन में पहुँचा। वहाँ कोई नहीं था। घुंघरुओं की आवाज़ भी अचानक बंद हो गई। चारों तरफ एक ऐसी खामोशी थी जो कानों में चुभती थी।

“कौन है वहाँ? बाहर निकलो!” हरवीर ने अपनी फौजी आवाज़ में गरजकर कहा, जिसकी गूँज खंडहरों में खो गई।

जवाब में, उसे एक आदमी के ठहाका लगाकर हँसने की आवाज़ सुनाई दी। यह आवाज़ किले के पुराने बाज़ार की तरफ से आ रही थी। उसे लगा जैसे कोई उसके साथ जानबूझकर यह खेल खेल रहा है। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया और वह बाज़ार की ओर बढ़ा।

जैसे ही उसने बाज़ार की टूटी-फूटी दुकानों के बीच कदम रखा, एक अजीब सी अनुभूति ने उसे जकड़ लिया। हवा में ताज़े पिसे मसालों और इत्र की तेज गंध थी। उसे अपने आस-पास फुसफुसाहट और चहल-पहल का एहसास होने लगा, जबकि वहाँ सिवाय उसके और किसी का वजूद नहीं था।

तभी उसने उसे देखा।

बाज़ार के अंत में, एक परछाई खड़ी थी। एक आदमी, जो शाही कपड़े पहने हुए था, उसकी तरफ पीठ करके खड़ा था।

“सुनो भाई,” हरवीर ने अपनी आवाज़ को सख़्त रखते हुए कहा। “तुम्हें पता है यहाँ रुकना मना है। चलो, बाहर निकलो।”

वह आदमी धीरे से पलटा। उसका चेहरा अँधेरे में साफ़ नहीं था, पर उसकी आँखें… वे अंगारों की तरह चमक रही थीं। वह एक तांत्रिक लग रहा था।

उसने एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा, “चौकीदार, यहाँ समय कभी नहीं बदलता। सूरज डूबता है, उगता है, पर हम सब तो यहीं हैं। बस तुम हमें आज देख पा रहे हो।”

यह कहकर वह ज़ोर से हँसा। और उसके हँसते ही, जैसे कोई पर्दा हट गया।

हरवीर को अपने चारों तरफ हज़ारों लोगों की आवाज़ें आने लगीं—बच्चों के खेलने की, औरतों के गप्पे मारने की, दुकानदारों के मोल-भाव की। उसे लगा जैसे वह एक पल में किसी भीड़-भरे, ज़िंदा शहर के बीच में आ गया है, जो किसी को दिखाई नहीं दे रहा। उसकी आँखों के सामने दुकानें सज गईं, हवेलियाँ रोशन हो गईं, और लोग उसे घूरकर देख रहे थे, जैसे कोई अजनबी उनके शहर में घुस आया हो।

आखिरी सुबह: एक अनकही कहानी

हरवीर की हिम्मत जवाब दे गई। उसने अपनी ज़िंदगी में कभी ऐसा खौफ महसूस नहीं किया था। वह अपनी चौकी की तरफ भागा। भागते हुए उसे लगा जैसे पूरा शहर उसके पीछे भाग रहा है, उसे अपनी दुनिया में खींचने के लिए।

वह हाँफते हुए अपनी चौकी में पहुँचा और अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया। वह रात उसने अपनी कुर्सी पर बैठकर, डर के मारे काँपते हुए बिताई। वह सिर्फ डरा हुआ नहीं था, उसकी पूरी हकीकत, उसका पूरा विश्वास टूटकर बिखर चुका था।

अगली सुबह, जब पुरातत्व विभाग के लोग आए, तो उन्होंने देखा कि हरवीर सिंह अपनी कुर्सी पर बैठा है। उसकी आँखें खुली थीं और किले के अंदर की ओर घूर रही थीं। उसका शरीर ठंडा पड़ चुका था।

लेकिन उसके चेहरे पर डर का कोई भाव नहीं था। बस एक अजीब सी हैरानी और शांति थी, जैसे उसने कोई बहुत बड़ा रहस्य जान लिया हो।

उसके हाथ में उसकी डायरी खुली पड़ी थी। उस पर रात की लिखी हुई आखिरी लाइन थी, काँपते हुए अक्षरों में –

“वे बुरे नहीं हैं… वे श्रापित भी नहीं हैं… वे बस समय में फँस गए हैं। और आज रात… मैं भी।”


यह कहानी हमें बताती है कि हकीकत और वहम के बीच की रेखा बहुत पतली होती है। कुछ रहस्य इंसानी समझ और तर्क से परे होते हैं। कभी-कभी, किसी जगह की खामोशी उसकी सबसे ऊँची चीख होती है, जिसे सुनने के लिए सिर्फ़ कानों की नहीं, बल्कि एक खुली हुई आत्मा की ज़रूरत पड़ती है। भानगढ़ आज भी अपनी कहानी सुनाता है, बस सुनने वाला चाहिए।


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Anuj Pathak

पेशे से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर, और दिल से एक कहानीकार हैं। अपने बच्चों को बचपन की कहानियाँ सुनाते हुए, उन्हें एहसास हुआ कि इन सरल कहानियों में जीवन के कितने गहरे सबक छिपे हैं। लेखन उनका शौक है, और KisseKahani.in के माध्यम से वे उन नैतिक और सदाबहार कहानियों को फिर से जीवंत करना चाहते हैं जो उन्होंने अपने बड़ों से सुनी थीं। उनका मानना है कि एक अच्छी कहानी वह सबसे अच्छा उपहार है जो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकते हैं।
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