हम रोज़ लिफ्ट में चढ़ते हैं। एक स्टील का डिब्बा, जो हमें हमारी मंज़िल तक पहुँचाने का वादा करता है। हम बटनों पर भरोसा करते हैं, दरवाज़ों के बंद होने की शांत आवाज़ पर, और उन नंबरों पर जो एक-एक कर के बदलते हैं। यह हमारी आधुनिक ज़िंदगी का एक सामान्य, भरोसेमंद हिस्सा है।
लेकिन क्या हो अगर एक रात, वो डिब्बा अपना रास्ता बदल दे?
क्या हो अगर लिफ्ट आपको आपकी मंज़िल पर नहीं, बल्कि अपनी मंज़िल पर ले जाना चाहे? एक ऐसी मंज़िल, जो किसी बिल्डिंग के नक्शे पर मौजूद नहीं है, और बन जाये आपकी – आखिरी मंज़िल।
यह कहानी करण की है, और उसकी लिफ्ट की उस एक रात की, जब भरोसे की यह सामान्य यात्रा एक भयानक सफर में बदल गई। एक ऐसा सफर जो उसे एक ऐसी मंज़िल पर ले गया, जहाँ से वापसी का कोई दरवाज़ा नहीं था।
चलिए पढ़ते है एक दिल दहला देने वाली कहानी –
आखिरी मंजिल
रात की स्याही जब शहर पर पूरी तरह फैल जाती है, तो “ग्लोबल टेक पार्क” जैसी इमारतें जाग उठती हैं। दिन में इंसानों से गुलज़ार रहने वाली ये जगहें, रात में अपनी असली पहचान दिखाती हैं – कंक्रीट और स्टील के खोखले ढाँचे, जहाँ हर परछाई लंबी हो जाती है और हर आवाज़ गूँजती है।
करण के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। वह अक्सर देर तक रुकता था, डेडलाइन और अधूरे कामों के बोझ तले दबा हुआ। आज भी वैसा ही एक दिन था। रात के साढ़े ग्यारह बजे, उसने अपना लैपटॉप बंद किया। चालीस मंजिला इमारत में अब वह अकेला था। एक अजीब सा सन्नाटा, जो सिर्फ खालीपन से नहीं, बल्कि एक भारी मौजूदगी से भरा लगता था।
लिफ्ट का बटन दबाते ही उसकी हरी बत्ती ऐसे जली, जैसे कोई आँख झपकी हो। दरवाज़े एक धीमी, सिसकी जैसी आवाज़ के साथ खुले। अंदर की ठंडी रोशनी और स्टील की दीवारों ने उसे निगल लिया। उसने पार्किंग के लिए ‘P2’ का बटन दबाया। एक हल्का झटका, और केबिन ने अपना सफर शुरू किया।
नीचे उतरते हुए नंबरों की गिनती एक शांत मंत्र की तरह थी। 35… 30… 25…। यह रोज़ का क्रम था, सुरक्षित और जाना-पहचाना।
पंद्रहवीं मंज़िल पर यह क्रम टूट गया।
लिफ्ट रुक गई। दरवाज़े खुले। बाहर का कॉरिडोर अँधेरे में डूबा था। वहाँ कोई नहीं था। बस हवा में एक मीठी सी, सड़ने जैसी गंध थी, जैसे कहीं फूल मुरझा रहे हों। करण ने दरवाज़ा बंद करने का बटन दबाया, उँगलियों में एक अनजानी सी बेचैनी थी।
बारहवीं मंज़िल पर लिफ्ट दोबारा रुकी, इस बार ज़्यादा झटके के साथ। दरवाज़े बंद रहे, लेकिन अंदर की बत्तियाँ एक पल के लिए काँपी और बुझ गईं। उस एक पल के अँधेरे में, लिफ्ट के स्पीकर से एक बच्चे के खिलखिलाने की आवाज़ आई—साफ़, नज़दीक, और फिर खामोश।
जब रोशनी वापस आई, तो करण के माथे पर पसीने की बूँदें थीं। उसने काँपते हुए कंट्रोल पैनल की तरफ देखा। उसका दिल जैसे सीने में धड़कना भूल गया। ‘P2’ की बत्ती बुझ चुकी थी।
उसकी जगह, एक नया बटन उभरा हुआ था।
वह धातु का नहीं, बल्कि हड्डी की तरह दिखने वाली किसी चीज़ का बना था। उस पर कोई नंबर नहीं था, बस एक प्रतीक खुदा हुआ था—एक अधखुली आँख का। वह बटन एक मद्धिम, बीमार सी लाल रोशनी फेंक रहा था, जैसे कोई नस धड़क रही हो।
समय जैसे जम गया। करण कुछ सोच पाता, इससे पहले ही लिफ्ट ने फैसला कर लिया। एक दर्दनाक चीख के साथ, केबिन नीचे जाने के बजाय ऊपर की ओर चढ़ने लगा। इमरजेंसी अलार्म का बटन पत्थर की तरह सख़्त और बेजान था।
डिस्प्ले पैनल पर नंबर बदल रहे थे, एक ऐसी गिनती जो नहीं होनी चाहिए थी। 12… 13… 14…। हर नंबर के साथ करण की साँसें अटक रही थीं।
लिफ्ट रुकी। डिस्प्ले पर अब कोई नंबर नहीं था, बस वही धड़कती हुई आँख का प्रतीक चमक रहा था। दरवाज़े खुले, इस बार बिना किसी आवाज़ के, जैसे कोई घूँघट उठा हो।
सामने का दृश्य तर्क और हकीकत से परे था। वह कोई ऑफिस का फ्लोर नहीं, बल्कि किसी पुराने, वीरान अस्पताल का वार्ड था। दीवारें पीली पड़ चुकी थीं, जिन पर सूखे हुए धब्बों के नक्शे बने थे। हवा में फिनाइल और एक अजनबी उदासी की गंध थी। कतार में लगे लोहे के बेड खाली थे, सिवाय एक के।
वह बेड गलियारे के बिल्कुल अंत में था, जहाँ अँधेरा सबसे घना था। उस पर कोई लेटा हुआ था, सिर से पाँव तक एक मैली, सफेद चादर से ढका हुआ।
करण की नसें खिंच गईं। भागो। दिमाग चीख रहा था। भागो!
वह पलटने ही वाला था कि उस चादर में हरकत हुई। कोई चीज़—या कोई—धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे चादर के नीचे उठ रही थी। वह इंसानी हरकत नहीं थी, उसमें एक अजीब सी अकड़न थी, जैसे कोई टूटी हुई कठपुतली हो।
डर से लकवाग्रस्त, करण की आँखें उस बेड पर जम गईं। चादर अब पूरी तरह से हट चुकी थी।
बेड खाली था।
एक पल की राहत। एक साँस जो हलक में अटक गई।
“इधर हूँ,” एक फुसफुसाहट, सूखी और ठंडी, ठीक उसके कान के पीछे से आई।
वह चीख नहीं सका। उसके फेफड़ों ने हवा खींचने से इनकार कर दिया। वह मुड़ा नहीं। उसे मुड़ने की ज़रूरत नहीं थी। लिफ्ट की स्टील की चमकीली दीवार पर, अपनी परछाई के ठीक बगल में, उसने एक और परछाई देखी। एक ऐसी परछाई जो लंबी थी, पतली थी, और जिसकी गर्दन एक नामुमकिन कोण पर झुकी हुई थी।
और फिर, लिफ्ट गिरने लगी। एक अंतहीन سقوط। एक खामोश चीख जो कभी बाहर नहीं आ सकी।
एक ज़ोरदार झटका। दरवाज़े खुले। वह P2 पार्किंग में था। अपनी कार के ठीक सामने। सब कुछ शांत, सामान्य।
वह लड़खड़ाते हुए लिफ्ट से बाहर निकला। उसके पैर अभी भी काँप रहे थे। उसने अपनी जेब में हाथ डाला। चाबी वहीं थी। एक गहरी, राहत की साँस उसके सीने से निकली। वह सब एक भयानक सपना था। एक वहम।
उसने कार का दरवाज़ा खोला और अंदर बैठ गया। उसने काँपते हुए हाथों से चाबी लगाई और इंजन स्टार्ट किया। हेडलाइट्स जल उठीं, और उनकी रोशनी सीधे सामने खड़ी लिफ्ट पर पड़ी।
करण की नज़र लिफ्ट के अंदर पड़ी, और उसका खून सर्द पड़ गया।
लिफ्ट खाली नहीं थी।
अंदर, वह खुद खड़ा था। वही कपड़े, वही चेहरा, लेकिन उसकी आँखों में खौफ था और उसका मुँह एक खामोश चीख में खुला हुआ था। वह पागलों की तरह लिफ्ट के दरवाज़े पर हाथ पीट रहा था, जो अब बंद हो रहे थे।
इससे पहले कि करण कुछ समझ पाता, लिफ्ट के दरवाज़े पूरी तरह से बंद हो गए। डिस्प्ले पैनल पर ‘P2’ की बत्ती बुझी, और उसकी जगह वही ‘आँख’ वाला बटन एक लाल रोशनी में धड़कने लगा।
लिफ्ट ऊपर जाने लगी।
करण अपनी कार में बैठा, खामोशी से उसे ऊपर जाते हुए देखता रहा। उसे अब कोई डर नहीं लग रहा था। बस एक अजीब सा खालीपन था। उसने अपनी नज़र सामने सड़क पर की और कार आगे बढ़ा दी। उसे घर जाना था।
आखिरकार, आज उसकी शिफ़्ट खत्म हो चुकी थी।
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पेशे से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर, और दिल से एक कहानीकार हैं। अपने बच्चों को बचपन की कहानियाँ सुनाते हुए, उन्हें एहसास हुआ कि इन सरल कहानियों में जीवन के कितने गहरे सबक छिपे हैं। लेखन उनका शौक है, और KisseKahani.in के माध्यम से वे उन नैतिक और सदाबहार कहानियों को फिर से जीवंत करना चाहते हैं जो उन्होंने अपने बड़ों से सुनी थीं। उनका मानना है कि एक अच्छी कहानी वह सबसे अच्छा उपहार है जो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकते हैं।