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भारत के वीर: अंतिम शपथ

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1965 का भारत – एक युद्ध की गूँज

भारत, 1965। आज़ादी के 18 साल बाद, देश अपनी पहचान को गढ़ने में लगा था। यह वह दौर था जब भारत ने न केवल अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का प्रयास किया, बल्कि अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए भी मजबूती से खड़ा होना सीखा। लेकिन इस साल, भारत को एक नए संकट का सामना करना पड़ा—भारत-पाक युद्ध।

देश के सीमांत इलाकों पर दुश्मन की गोलियाँ गूँज रही थीं। ऐसे कठिन समय में, भारत के वीर अपने वतन की रक्षा के लिए हर कोने से सेना में शामिल हो रहे थे। इन वीरों का एक ही उद्देश्य था—अपने तिरंगे की शान को बनाए रखना, चाहे इसके लिए उन्हें अपने प्राणों की आहुति ही क्यों न देनी पड़े।

वीरभूमि का युवा नायक

राजस्थान के एक छोटे से गाँव केसरपुर में, 23 वर्षीय अर्जुन सिंह अपने पिता की तरह ही एक बहादुर सैनिक बनना चाहता था। अर्जुन के पिता, सूबेदार मोहन सिंह, भारत-पाक विभाजन के समय भारत की सेना में सेवा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनकी वीरता की कहानियाँ अर्जुन के खून में देशभक्ति का जोश भर देती थीं।

भारत के वीर

गाँव के चौपाल पर लोग अक्सर अर्जुन से कहते:
“तेरा खून तिरंगे के लिए ही बहने को बना है। जब तू सेना में जाएगा, पूरा गाँव तुझ पर गर्व करेगा।”

अर्जुन का सपना था कि वह अपने पिता के अधूरे मिशन को पूरा करे। 1965 में जब युद्ध शुरू हुआ, तो सेना की भर्ती के लिए गाँव में सूचना आई। अर्जुन ने तुरंत अपने छोटे भाई अमर और माँ को गले लगाया और बोला:
“माँ, मेरे खून का हर कतरा इस धरती के लिए है। मैं अपने पिता की तरह तिरंगे के लिए जीऊँगा और मरूँगा।”

जंग का मैदान

अर्जुन की पोस्टिंग कश्मीर के पास अखनूर सेक्टर में हुई, जो युद्ध का सबसे खतरनाक मोर्चा था। भारतीय सेना के पास सीमित संसाधन थे, लेकिन उनके पास जो था वह दुश्मनों के पास नहीं था—देशभक्ति और अटूट साहस।

उसकी यूनिट का कमांडर, कर्नल वीरेंद्र सिंह, एक अनुभवी सेनानी था, जिसने अर्जुन जैसे नौजवानों को उत्साह के साथ लड़ने की प्रेरणा दी।
“याद रखना, अर्जुन,” कर्नल ने कहा।
“यह जंग सिर्फ हमारी सीमाओं की नहीं, हमारी पहचान की भी है। हर सैनिक का जीवन तिरंगे की शान में समर्पित होना चाहिए।”

‘अंतिम शपथ’ का पल

सितंबर 1965 की एक सर्द रात थी। दुश्मन की सेना ने भारतीय चौकियों पर हमला करने की योजना बनाई। अर्जुन की यूनिट को सूचना मिली कि दुश्मन एक गुप्त सुरंग से हमारी सीमा में प्रवेश कर रहा है।
कर्नल वीरेंद्र सिंह ने अर्जुन को बुलाया:
“तुम्हें और तुम्हारी टुकड़ी को इस सुरंग को ब्लास्ट कर इसे नष्ट करना होगा। यह मिशन खतरनाक है। अगर तुम असफल हुए, तो दुश्मन हमारे इलाके में घुस जाएगा।”

अर्जुन ने बिना एक पल गंवाए कहा:
“सर, यह देश मेरा सब कुछ है। यह मिशन मेरा कर्तव्य है।”

साहस की परीक्षा

अर्जुन और उसकी छोटी टुकड़ी ने चुपचाप दुश्मन की सुरंग तक पहुँचने की योजना बनाई।

अर्जुन ने अपने साथियों से कहा:
“तुम्हें मेरे पीछे हटना होगा। मैं अकेले सुरंग में जाकर इसे ब्लास्ट करूँगा। अगर मैं न लौटा, तो मेरी शपथ को याद रखना और दुश्मनों को हराना।”

साथियों ने रोका, लेकिन अर्जुन अडिग था। वह अपने पिता की सीख को याद करते हुए बोला:
“यह तिरंगा हमारी साँसों से ज्यादा कीमती है। अगर मैं मरा, तो मेरी मौत भी इस मिट्टी के लिए होगी।”

अर्जुन का बलिदान

सुरंग के अंदर, अर्जुन ने विस्फोटक सेट किया। दुश्मन को पता चल गया और उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी।

“जय हिंद!” की गूँज के साथ एक भयंकर विस्फोट हुआ।
दुश्मन की सुरंग ध्वस्त हो गई, और भारतीय सेना की चौकियाँ बच गईं। लेकिन अर्जुन अब इस दुनिया में नहीं था।

विजय और प्रेरणा

अर्जुन का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उसकी यूनिट ने दुश्मनों को पीछे खदेड़ दिया।
अर्जुन का शव तिरंगे में लिपटा गाँव लाया गया। पूरा गाँव चौपाल पर इकट्ठा हुआ।
रामलीला मैदान में, जहाँ अर्जुन का अंतिम संस्कार हुआ, वहाँ कर्नल वीरेंद्र सिंह ने कहा:

“अर्जुन सिंह जैसे वीर सैनिक ही हमारी मिट्टी की असली ताकत हैं। उनका बलिदान हमें याद दिलाता है कि देशभक्ति केवल शब्द नहीं, कर्तव्य है।”

अर्जुन की माँ ने अपने बेटे के बलिदान पर आँसू पोंछते हुए कहा:
“मेरा बेटा आज अमर हो गया।”

प्रेरणा की गूँज

आज भी, केसरपुर के चौपाल पर अर्जुन सिंह का स्मारक खड़ा है। हर साल गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर गाँव के लोग वहाँ तिरंगा फहराते हैं।
अर्जुन की कहानी केवल केसरपुर के लिए नहीं, पूरे देश के लिए एक प्रेरणा बन गई।

संदेश:
“वतन के वीर वो होते हैं, जो अपने प्राणों से ज्यादा तिरंगे की शान को महत्व देते हैं। उनके बलिदान से ही देश सुरक्षित और स्वतंत्र है।”

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